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देश में न्यायपालिका में सुनिश्चित होना चाहिए,लैंगिक समानता की दरकार

भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने सर्वोच्च न्यायालय के नौ नए जजों के लिए आयोजित सम्मान समारोह को संबोधित करते हुए न्यायपालिका में महिलाओं के आरक्षण की पुरजोर वकालत की है। यह स्वागतयोग्य एवं सकारात्मक संदेश है। मुख्य न्यायाधीश के वक्तव्य के बाद अदालतों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा चर्चा में आ गया है। देखा जाए तो न्यायपालिका में पुरुष जजों की तुलना में महिला जजों की संख्या काफी कम रही है। 1950 में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना होने के बाद देश को पहली महिला जज मिलने में 39 साल लग गए थे।

1989 में जस्टिस फातिमा बीवी के रूप में पहली महिला न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय में पहुंची थीं, लेकिन सात दशक के लंबे सफर के बीत जाने के बावजूद भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर आज तक किसी भी महिला न्यायाधीश को नियुक्त नहीं हुई है। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में 34 न्यायाधीश हैं। इनमें से केवल चार (11.76 फीसद) महिलाएं हैं। इससे पहले यहां एक साथ कभी भी इतनी महिला जज नहीं रहीं। वहीं राज्यों के 25 उच्च न्यायालयों के 677 जजों में से 81 (11.96 फीसद) महिला जज हैं। इनमें से पांच उच्च न्यायालयों में एक भी महिला जज नहीं हैं। भारत की उच्च न्यायिक व्यवस्था में इतनी कम महिला न्यायाधीशों की मौजूदगी दुखद है।

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उच्च न्यायालयों में कम महिला जजों के होने का एक मुख्य कारण बड़ी संख्या में प्रैक्टिस करने वाली अच्छी महिला अधिवक्ताओं/वकीलों का नहीं होना है। वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में कुल 403 पुरुष वरिष्ठ अधिवक्ताओं की तुलना में केवल 17 महिलाएं ही हैं। इसी प्रकार दिल्ली उच्च न्यायालय में 229 पुरुषों के मुकाबले केवल आठ वरिष्ठ महिला अधिवक्ता और बांबे उच्च न्यायालय में 157 पुरुषों के मुकाबले केवल छह वरिष्ठ महिला अधिवक्ता हैं। देश में 17 लाख वकीलों में से केवल 15 फीसद महिलाएं है और बार काउंसिल में निर्वाचित प्रतिनिधियों में वे केवल दो फीसद हैं। साफ है कि पुरुष अधिवक्ताओं/वकीलों की तुलना में महिला अधिवक्ताओं की संख्या काफी कम है। हाई कोर्ट में न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए हाई कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहे अधिवक्ताओं को प्राथमिकता दी जाती है। जब वरिष्ठ महिला वकीलों की संख्या काफी कम होगी तो अधिक महिलाओं के न्यायाधीश बनने की संभावना भी कम से कम रहती है। और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति ही अक्सर सुप्रीम कोर्ट में होती है। ऐसे में अगर हमारे पास उच्च न्यायालयों में अच्छी महिला न्यायाधीश ही नहीं होंगी तो सुप्रीम कोर्ट में उनका प्रतिनिधित्व बेहतर नहीं हो सकता है।

सार्वजानिक जीवन में महिलाओं की पर्याप्त भागीदारी लैंगिक न्याय का एक मूल घटक है। न्यायिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी से महिलाओं के लिए न्यायालयों में अनुकूल वातावरण निíमत होता है तथा न्यायिक निर्णयों की गुणवत्ता में सुधार होता है। न्यायपालिका में महिलाओं की भागादारी बढ़ने से लोगों का नजरिया भी बदलता है। सर्वोच्च न्यायालय की न्यायाधीश बीवी नागरत्ना का मानना है कि न्यायिक क्षेत्र में वरिष्ठ स्तर पर महिलाओं की नियुक्तियां लैंगिक रूढ़ियों को बदल सकती हैं। न्यायिक अधिकारियों के रूप में महिलाओं की भागीदारी सरकार की विधायी और कार्यकारी शाखाओं जैसे अन्य निर्णय लेने वाले पदों पर महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।

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अच्छी बात है कि दूसरे तमाम क्षेत्रों की तरह ही न्यायिक व्यवस्था में भी महिलाएं अपनी जगह बनाने की कोशिशों में जुटी हैं। इस वजह से महिलाओं का प्रतिनिधित्व निचली अदालतों में कुछ बेहतर रहा है, जहां वर्ष 2017 तक 28 प्रतिशत महिलाएं जज थीं। प्रवेश परीक्षा के माध्यम से भर्ती की पद्धति के कारण अधिकाधिक महिलाएं निचली अदालतों में प्रवेश करती हैं। दरअसल उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में कोलेजियम के तहत होने वाली जजों की सीधी नियुक्ति में महिलाओं के आरक्षण के लिए अभी तक कोई नियम या कानून नहीं बनने की वजह से देश की आधी आबादी का न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व बहुत कम है। समय की मांग है कि केंद्र सरकार एनजेएसी यानी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को नए सिरे से गठित करने की पहल करे।

यह लोकतंत्र की गरिमा और मर्यादा के प्रतिकूल है कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करें। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि पिछले 70 वर्षो के दौरान उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय में महिलाओं को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के कोलेजियम के पास होता है इसलिए न्यायपालिका में महिलाओं को उचित प्रतिधिनित्व देने की शुरुआत स्वयं सर्वोच्च न्यायालय से होनी चाहिए। जब हम देश में लैंगिक समानता की बात करते हैं तो हमारी न्यायपालिका में भी लैंगिक समानता होनी चाहिए।

देश में कई राज्य ऐसे हैं जहां जिला और अधीनस्थ अदालतों में महिलाओं के लिए एक आरक्षण नीति है, लेकिन उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में यह अवसर मौजूद नहीं है। यह उपयुक्त समय है कि उच्चतर अदालतों में भी अधीनस्थ अदालतों की तरह योग्यता से कोई समझौता किए बिना महिलाओं के लिए क्षैतिज आरक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 और अनुच्छेद 224 के अधीन की जाती है, जो व्यक्तियों की किसी जाति या वर्ग के लिए आरक्षण का उपबंध नहीं करते हैं। ऐसे में न्यायपालिका में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए सरकार को संविधान संशोधन करके प्रविधान करना चाहिए।

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