मानसिक स्वास्थ्य : एक अनदेखा संकट
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आज के समय में मानसिक स्वास्थ्य एक गंभीर और व्यापक चिंता का विषय बन चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, वैश्विक स्तर पर हर आठ में से एक व्यक्ति किसी न किसी मानसिक विकार से पीड़ित है। भारत में, राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-16) के अनुसार, लगभग 10.6% वयस्क जनसंख्या मानसिक विकारों से ग्रस्त है। हालांकि, उपचार की कमी के कारण, इन मामलों में से 70% से 92% तक बिना किसी चिकित्सा सहायता के रह जाते हैं। यह स्थिति समाज में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति उदासीनता और कलंक के कारण और भी गंभीर हो जाती है, जिससे प्रभावित लोग अपनी समस्याओं को साझा करने से कतराते हैं।
आधुनिक अनुसंधान दर्शाते हैं कि मानसिक बीमारियाँ न केवल व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करती हैं, बल्कि समाज और अर्थव्यवस्था पर भी नकारात्मक प्रभाव डालती हैं। उदाहरण के लिए, मानसिक विकारों के कारण उत्पादकता में कमी आती है, जिससे आर्थिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा, मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ जैसे अवसाद और चिंता, आत्महत्या के जोखिम को बढ़ाती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2022 में भारत में 1.71 लाख से अधिक लोगों ने आत्महत्या की, जो एक चिंताजनक आंकड़ा है।
मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि समाज में इस विषय पर खुलकर चर्चा और जागरूकता की कमी सबसे बड़ी बाधा है। डॉ. आनंद प्रकाश श्रीवास्तव के अनुसार, “मानसिक स्वास्थ्य, जीवन की गुणवत्ता का पैमाना होने के साथ-साथ सामाजिक स्थिरता का भी आधार होता है।” इसके बावजूद, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता और गुणवत्ता में कमी है। भारत में प्रति 100,000 जनसंख्या पर केवल 0.75 मनोचिकित्सक उपलब्ध हैं, जबकि WHO प्रति 100,000 पर 3 मनोचिकित्सकों की सिफारिश करता है। इसके अलावा, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारी खर्च भी अपर्याप्त है, जिससे उपचार की पहुँच सीमित हो जाती है।
दूसरे देशों में, मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने के लिए विभिन्न नीतियाँ और कार्यक्रम लागू किए गए हैं। उदाहरण के लिए, यूनाइटेड किंगडम ने मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम में संशोधन कर सरकारी खर्च पर मानसिक रोगियों के इलाज को अनिवार्य किया है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने मानसिक स्वास्थ्य समानता और व्यसन इक्विटी अधिनियम लागू किया है, जिससे मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को सामान्य स्वास्थ्य सेवाओं की तरह बीमा कवरेज में शामिल किया गया है। ऑस्ट्रेलिया में “बियॉन्ड ब्लू” जैसी पहल के माध्यम से डिप्रेशन और एंग्जायटी से निपटने के लिए ऑनलाइन और टेलीफोनिक काउंसलिंग की सुविधा उपलब्ध कराई गई है।
भारत सरकार ने भी मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में कुछ कदम उठाए हैं। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (NMHP) का उद्देश्य देश भर में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार करना है। मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 के माध्यम से मानसिक रोगियों के अधिकारों की सुरक्षा की गई है। इसके अलावा, आयुष्मान भारत योजना के तहत मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को शामिल किया गया है। हालांकि, इन प्रयासों के बावजूद, जागरूकता की कमी, कलंक, और संसाधनों की अपर्याप्तता के कारण मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच और प्रभावशीलता सीमित है।
आगे बढ़ने के लिए, मानसिक स्वास्थ्य के प्रति समाज की धारणा में बदलाव आवश्यक है। स्कूलों और कॉलेजों में मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा को अनिवार्य किया जाना चाहिए, ताकि युवा पीढ़ी इस विषय पर संवेदनशील हो सके। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार करना चाहिए, ताकि ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में भी लोग इन सेवाओं का लाभ उठा सकें। कार्यस्थलों पर मानसिक स्वास्थ्य नीतियाँ लागू की जानी चाहिए, जिससे कर्मचारियों को एक स्वस्थ और सहयोगी वातावरण मिल सके। इसके साथ ही, मीडिया और सामाजिक प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाई जानी चाहिए, ताकि लोग बिना किसी झिझक के अपनी समस्याएँ साझा कर सकें और समय पर सहायता प्राप्त कर सकें।
मानसिक स्वास्थ्य एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। समाज की उदासीनता के कारण यह समस्या और भी गंभीर हो जाती है। आवश्यक है कि हम सभी मिलकर मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाएँ, समर्थन प्रदान करें, और एक ऐसा वातावरण बनाएँ जहाँ हर व्यक्ति अपने मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रख सके और आवश्यक सहायता प्राप्त कर सके।
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