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अदानी समूह के शेयरधारकों के भारी नुक़सान से फ़ायदा किसे हुआ?

हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट से गौतम अदानी को लगभग दस लाख करोड़ रुपए का झटका लग चुका है. इतनी रक़म उनकी जेब से नहीं गई है, लेकिन एक हफ़्ते पहले उनकी कुल संपत्ति जहां थी, वहां से उसकी क़ीमत में इतनी कमी आ चुकी है.

एक हफ़्ते में ही वो अमीरों की लिस्ट में नंबर तीन से खिसककर शुक्रवार की शाम तक दो अलग-अलग लिस्टों में सत्रहवें और बाइसवें नंबर तक पहुंच चुके हैं.

शनिवार और रविवार को बाज़ार बंद रहने के बाद सोमवार को जब खुले तब भी अदानी समूह की कई कंपनियों के शेयरों में बिकवाली का दौर जारी था.

लेकिन बड़ा सवाल यह है कि अदानी समूह के शेयरधारकों के इतने भयानक नुक़सान से फायदा किसे हुआ?

हिंडनबर्ग ने रिपोर्ट की शुरुआत में ही लिखा है कि उसने अदानी समूह की कंपनियों में शॉर्ट पोज़िशन ले रखी है. ऐसा उसने अमेरिकी बाज़ारों में खरीदे-बेचे जानेवाले बॉन्ड के ज़रिए और ऐसे ‘डेरिवेटिव इंस्ट्रुमेंट्स’ के ज़रिए किया है जिनका लेन-देन भारत के बाज़ारों में नहीं होता.

गौतम अदानी और नेट एंडरसन

शॉर्ट पोज़िशन को बिकवाली क्यों नहीं कहते?

शॉर्ट पोज़िशन का सीधा अर्थ होता है बिकवाली का सौदा. फिर इसे सीधे-सीधे बेचना या बिकवाली क्यों नहीं कहते? ऐसा इसलिए कि जब किसी के पास शेयर या बॉन्ड होते हैं, तब वो सीधे उन्हें बेचकर पैसे वसूल सकता है.

लेकिन शॉर्ट करने का अर्थ होता है कि बेचनेवाले के पास भी शेयर (या इस मामले में बॉन्ड) नहीं हैं, लेकिन उसे पूरी उम्मीद है कि आज उनका जो भाव है, जल्दी ही वो वहां से गिरनेवाला है. इसीलिए वो आज बेचने का सौदा कर लेता है और गिरावट के बाद नीचे भाव पर शेयर या बॉन्ड ख़रीदकर उन्हें ख़रीदार को सौंप देता है.

भाव का फ़र्क ही उसका फ़ायदा होता है.

इसी सौदे का एक पुख़्ता तरीक़ा होता है कि वो शेयर या बॉन्ड किसी से उधार लेकर सामनेवाले को सौंप देता है. और फिर दाम गिरने पर अपना उधार चुका देता है.

इस तरह के सौदों को वायदा सौदा भी कहा जाता है, जहां बेचनेवाला एक निश्चित तारीख पर एक निश्चित भाव पर बेचने का और ख़रीदनेवाला उसी तारीख पर उसी भाव पर खऱीदने का वादा कर लेते हैं.

उस दिन अगर भाव नीचे गिरा हुआ है तो बेचनेवाला फ़ायदे में और अगर बढ़ा हुआ है तो ख़रीदनेवाला फायदे में. वायदा बाज़ार या फ्यूचर एंड ऑप्शंस मार्केट इसी तरह काम करता है.

अब उस दिन दोनों लोग शेयरों का लेनदेन भी कर सकते हैं और यह भी कह सकते हैं कि कहीं से शेयर लाकर देने के बजाय हम लोग सिर्फ़ दाम में फर्क़ देखकर उस रकम का ही लेनदेन कर लें जितने का फ़ायदा या नुक़सान हुआ है.

लेकिन इस तरह के सौदे को नेकेड शॉर्ट सेलिंग कहा जाता है, 2007 में भारत में ऐसे सौदों पर रोक लगा दी गई थी.

क्या होता है ‘नेकेड शॉर्ट सेलिंग’?

इसका एक उदाहरण देख लें. फर्ज़ कीजिए कि किसी कंपनी का शेयर आज दो सौ रुपए प्रति शेयर का मिल रहा है. लेकिन मुझे भरोसा है कि यह शेयर जल्दी ही गिरनेवाला है. मैं उसके सौ शेयर इसी भाव पर बेचने का सौदा आपके साथ कर लेता हूं. वायदा है कि अगले हफ़्ते हम यह लेनदेन करेंगे.

अब मैं वो शेयर किसी से उधार लूं या न लूं, हफ़्ते भर में कंपनी का भाव गिरकर 150 रुपए हो गया. जो शेयर बीस हज़ार रुपए के थे, वो पंद्रह हज़ार के रह गए.

अब मैं पंद्रह हजार में बाज़ार से ख़रीदकर आपको शेयर थमा दूंगा और बीस हज़ार रुपए ले लूंगा. इसे शॉर्ट इसलिए कहा जाता है कि मेरे पास उतने शेयर कम हैं यानी नहीं हैं जिनका मैं सौदा कर रहा था.

लेकिन इसका एक उल्टा पहलू भी है.

दो सौ रुपए का शेयर गिरकर अधिक से अधिक शून्य हो सकता है, यानी इस सौदे में बेचनेवाला ज़्यादा से ज़्यादा बीस हज़ार रुपए ही कमा सकता है. लेकिन उसका जोखिम असीमित है. क्योंकि शेयर अगर गिरने के बजाय बढ़ने लगा तो फिर वो बढ़कर कहीं भी जा सकता है.

कैलकुलेटर निकाल कर खुद ही हिसाब लगा लें कि अगर यह शेयर उसी रफ्तार से बढ़ने लगे, जैसे अदानी समूह के शेयर पिछले तीन साल से बढ़ रहे थे तो बेचनेवाला कब-कब और कितने नुक़सान में रहता.

लेकिन अदानी और हिंडनबर्ग का मामला थोड़ा और पेचीदा है.

हिंडनबर्ग ने अदानी के शेयर गिराने के लिए क्या किया?

यहां मामला ये है कि हिंडनबर्ग का नाम तो हिंडनबर्ग रिसर्च है, जिससे लगता है कि वो कोई बड़ी रिसर्च एजेंसी है. लेकिन उसने यह बात साफ़-साफ़ बताई हुई है कि वो मंदी का व्यापारी यानी शॉर्ट सेलर है.

वो भी एक ख़ास किस्म का जिसे ‘एक्टिविस्ट शॉर्ट सेलर’ कहा जाता है. सामान्य तौर पर मंदी के सौदे करनेवाले अपनी जानकारी, बाज़ार और व्यापार के माहौल वगैरह को देखकर ऐसे सौदे करते हैं और उससे फ़ायदा कमाने की कोशिश करते हैं.

लेकिन एक्टिविस्ट शॉर्ट सेलर ऐसी कंपनियों की खोज़ करते रहते हैं जिनके कामकाज में ऐसी गड़बड़ियां हों जिन्हें उजागर करके वो उसके शेयरों के दाम गिरा सकते हैं.

पड़ताल पूरी करने के बाद वो पहले उन कंपनियों में मंदी के सौदे करते हैं और फिर अपनी रिपोर्ट दुनिया के सामने रख देते हैं ताकि कंपनी के शेयरों में गिरावट आए और उन्हें इसका फ़ायदा मिले.

हिंडनबर्ग ने अदानी के साथ यही किया है. इनका दावा है कि पूरे दो साल तक उन्होंने अदानी के कारोबार की जांच पड़ताल और उससे जुड़े तथ्यों और दस्तावेज़ों की खोजबीन की है.

लेकिन पहली मुश्किल तो यह थी कि हिंडनबर्ग के लिए भारत के बाज़ार में अदानी की कंपनियों में शॉर्ट सेलिंग करना आसान नहीं था.

रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ अमेरिका के दूसरे कई शॉर्ट सेलर अभी समझने की कोशिश कर रहे हैं कि हिंडनबर्ग ने दरअसल क्या सौदा किया है और कैसे? क्योंकि उनके अनुसार विदेशियों के लिए भारत में किसी भारतीय कंपनी पर मंदी का दांव लगाना काफी मुश्किल है.

इसकी एक वजह तो शॉर्ट सेलिंग पर 2007 में बने सेबी के नए नियम हैं और दूसरी वजह यह भी है कि विदेशी संस्थानों को अपने ऐसे सौदों की जानकारी भी देनी पड़ती है, जो कि हिंडनबर्ग जैसे एक्टिविस्ट शॉर्ट सेलर के लिए मुश्किल है.

एक्टिविस्ट शॉर्ट सेलर जिस भी कंपनी को निशाना बनाते हैं, उसमें बिकवाली के सौदे करने यानी शॉर्ट पोज़िशन बनाने का काम उन्हें बहुत गोपनीय तरीक़े से ही करना होता है. क्योंकि जैसे ही बाज़ार में किसी को भनक लगी कि कोई एक्टिविस्ट शॉर्ट सेलर किसी कंपनी को शॉर्ट कर रहा है, उस कंपनी के शेयरों में तेज़ गिरावट आने लगती है.

इसीलिए जब तक वो अपने सौदे पूरे न कर लें, तब तक यह ख़बर दबी रहना भी उनके लिए ज़रूरी है.

अब हिंडनबर्ग ने जो ख़ुद कहा है उस आधार पर दो रास्ते हैं पैसा कमाने के. पहला तो अदानी कंपनियों के जो बॉन्ड्स अमेरिकी बाज़ार में ख़रीदे बेचे जाते हैं उनको बेचने के सौदे, और दूसरे डेरिवेटिव सौदे.

पहले बॉन्ड्स की बात कर लें. इन बॉन्ड्स की क़ीमत काफी गिर चुकी है और उनपर किसी सामान्य निवेशक को भी बत्तीस परसेंट तक की कमाई की गुंजाइश दिखने लगी थी. लेकिन सिर्फ इस गिरावट से हिंडनबर्ग की दो साल की मेहनत का फल मिल जाएगा यह मानना मुश्किल है.

वजह यह है कि अमेरिका में अदानी कंपनियों के कुछ सौ करोड़ डॉलर के ही बॉन्ड्स हैं, यानी गिनती इतनी नहीं है कि कोई आसानी से उन्हें उधार ले और शॉर्ट करके बड़ी रकम क़मा ले.

दूसरा रास्ता है डेरिवेटिव. डेरिवेटिव का अर्थ बाज़ार में ऐसे इंस्ट्रुमेंट या सौदे हैं, जिनमें लेनदेन का फ़ैसला किसी और चीज़ के आधार पर तय होता है. ये अंग्रेज़ी के शब्द डिराइव से बना है यानी वह सौदा जिसका नतीजा किसी और चीज़ से डिराइव या तय हो रहा है.

जैसे सिंगापुर स्टॉक एक्सचेंज में भारत के निफ्टी का एक डेरिवेटिव चलता है, जिसका नाम एसजीएक्स निफ्टी है.

एसजीएक्स निफ्टी में ख़रीद बिक्री करने के लिए किसी को भारत के नियम क़ानून मानना ज़रूरी नहीं है. लेकिन उसके ऊपर नीचे जाने का फैसला भारत में निफ्टी के ऊपर नीचे जाने से ही होगा.

ऐसा ही सौदा कंपनी के शेयरों के नाम पर भी हो सकता है, कि भारत में किसी कंपनी के शेयर ऊपर जाएंगे या नीचे इसपर अमेरिका में बैठे दो लोग आपस में सौदा कर लें.

हिंडनबर्ग रिसर्च के प्रमुख नेट एंडरसन.

फ़ायदे में रहेगा हिंडनबर्ग या फंसेगा?

हिंडनबर्ग ने यह नहीं बताया है कि उसने ठीक-ठीक क्या और कितना बड़ा सौदा किया है. लेकिन चर्चा है कि अमेरिका में दूसरे बड़े शॉर्ट सेलरों के लिए भी यह एक पहेली बनी हुई है.

समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार हिंडनबर्ग ने इस सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया जबकि अदानी समूह और सेबी ने उनके सवालों पर कोई जवाब दिया ही नहीं.

हालांकि अमेरिकी क़ानून के तहत इस तरह मंदी के सौदे करने के बाद रिपोर्ट निकालने और मुनाफ़ा कमाने पर कोई रोक नहीं है. लेकिन अगर यह साबित हो गया कि हिंडनबर्ग ने गलत या भ्रामक जानकारी देकर मुनाफ़ा कमाने की कोशिश की है तो यह अमेरिका के क़ानून के तहत अपराध बनता है.

हालांकि हिंडनबर्ग ने अदानी को चुनौती दी है कि वो अमेरिका में उसपर मुक़दमा करें.

दूसरी समस्या उन तथ्यों में हैं जो हिंडनबर्ग ने अपने आरोपों के साथ इस्तेमाल किए हैं. अगर यह सारी जानकारी उसने कंपनी की तरफ से या सार्वजनिक रूप से उपलब्ध दस्तावेज़ों से इस्तेमाल की है तब तो कोई मुश्किल नहीं होगी.

लेकिन अगर अपनी जांच पड़ताल से उसने ऐसी जानकारी निकाली है, जो बाकी जनता को उपलब्ध नहीं थी, तब इस जानकारी को सामने लाए बिना सौदे करने को इनसाइडर ट्रेडिंग माना जा सकता है. ऐसा हुआ तो फिर हिंडनबर्ग मुसीबत में आ जाएगा.

लेकिन उसकी मुसीबत जब आएगी तब आएगी. अभी तो पता यही लगना है कि अदानी के लिए मुसीबत खड़ी करके हिंडनबर्ग ने आख़िर कितना कमाया और कैसे?

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