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चुनाव के पास आते ही राजनितिक दलों ने किसानों को अपनी ओर लुभाने के लिए एमएसपी को बना रही अपना हथियार 

न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की चर्चा वे लोग भी करते हैं, जिन्होंने न खेत देखा, न खेती और न ही खेतिहरों की हालत। किसान भी सिर्फ उन्हें कहा जा रहा है, जिनके नाम जमीन हैं। वे खेती करें या न करें। बात सिर्फ एमएसपी की हो रही है, वह भी खरीद की गारंटी के साथ। भविष्य की एमएसपी कैसी हो? इस चर्चा से पहले यह जान लेना जरूरी है कि यह आई कहां से और किसके लिए थी। कोई 55 साल पहले भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के गठन के साथ एमएसपी की शुरुआत हुई थी, जो आज भी जारी है।

देश की भुखमरी खत्म करने के लिए एमएसपी का उपयोग किसानों से गेहूं एवं चावल लेवी के तौर पर किया जाता था। खुले बाजार में अनाज का मूल्य अधिक था और लेवी वाला मूल्य यानी एमएसपी कम होती थी। किसान इस मूल्य पर अनाज देने को राजी नहीं होते थे, लेकिन गेहूं की खेती के रकबा के हिसाब से किसानों को गेहूं देना पड़ता था। सार्वजनिक राशन प्रणाली (पीडीएस) के तहत गरीबों को रियायती दर पर अनाज बांटने की कुछ जिम्मेदारी किसानों को भी उठानी पड़ती थी।

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उसी दौरान हरित क्रांति की लौ से कृषि जगत जगमगाने लगा। चौतरफा किसानों ने अन्य सभी फसलों की खेती छोड़ गेहूं एवं धान की खेती करनी शुरू कर दी। बदलती परिस्थितियों के बीच बाजार में इन दोनों अनाजों की बहुतायत का नतीजा यह हुआ कि इनकी कीमतें घटने लगीं। खुले बाजार के मुकाबले एमएसपी अधिक हो गई। किसान सरकारी खरीद केंद्रों की ओर मुड़ने लगे। राज्यों के बीच भी सरकारी खरीद बढ़ाने की होड़ लग गई। गेहूं-चावल के साथ खेती एकांगी होती गई और बाकी फसलें गौड़। खेती-बाड़ी से बाड़ी बाहर हो गई। एमएसपी राजनीतिक दलों के हाथों का खिलौना बन गई। चुनावों के पहले एमएसपी के रास्ते किसानों को लुभाने की कोशिश होती रही है। देश की खाद्य सुरक्षा और कृषि क्षेत्र के संतुलित प्रबंधन पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। लिहाजा गोदामों के साथ सबका पेट भरने के बावजूद भारत दुनिया के 107 देशों के हंगर इंडेक्स में 94वें स्थान पर है। आजादी के 75वें साल में हम पोषण अभियान चलाने के लिए फोर्टफिाइड चावल के उत्पादन की बात कर रहे हैं। प्रोटीन वाले अनाज का उत्पादन बढ़ाने के लिए कभी कोई प्रोत्साहन ही नहीं दिया गया। जिस एमएसपी के रास्ते गेहूं और चावल का उत्पादन बढ़ाया गया, उसका उपयोग गैर अनाज वाली फसलों पर नहीं किया गया।

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एमएसपी लाने वाली एलके झा कमेटी की सिफारिशों पर पूरी तरह कभी गौर नहीं किया गया। उनकी रिपोर्ट में ही कहा गया है, ‘डेफिसिट फूडग्रेन इकोनामी के लिए एमएसपी वरदान साबित होगी, जबकि सरप्लस फूडग्रेन इकोनामी में यह अभिशाप हो सकती है।’ आज देश में खाद्यान्न का भारी उत्पादन हो रहा है। गोदाम भरे पड़े हैं। निर्धारित बफर और पीडीएस के लिए आवश्यक स्टाक के मुकाबले बहुत अधिक अनाज है। देश की 80 करोड़ से अधिक आबादी को मुफ्त में अनाज वितरित किया जा रहा है। जरूरत मांग आधारित खेती की है। अनाज की जगह अन्य तिलहनी और दलहनी फसलों की खेती पर जोर देने की जरूरत है। इसी तरह की फसलों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।

कृषि क्षेत्र में वैसे तो 23 फसलों के लिए एमएसपी घोषित की जाती है, पर इसका सबसे ज्यादा फायदा गन्ना, गेहूं एवं धान के किसानों को हो रहा है। इसके अलावा बागवानी, डेयरी, पशुधन, मत्स्य एवं पोल्ट्री किसानों को इसका लाभ कभी नहीं मिला। जबकि इनमें लगे किसान छोटे अथवा मझोले किस्म के हैं। बिना किसी सरकारी समर्थन यानी न एमएसपी और न ही अन्य किसी तरह की सरकारी मदद के बगैर इसके किसान सुखी हैं। उनकी उपज को बेचने के लिए न बाजार की कमी है और न ही सरकारी समर्थन की जरूरत। उन्होंने बाजार की मांग को समझा और उसी के अनुकूल उत्पादन किया। लिहाजा वे फायदे में रहे। जिन किसानों को मुफ्त बिजली, रियायती दर पर खाद, रियायती कृषि ऋण और उपज की बिक्री के लिए एमएसपी का निर्धारण जैसी सरकारी मदद प्राप्त होती रही वे आज भी सरकार के भरोसे खेती करते हैं। अब तो एमएसपी के कानूनी हक और खरीद की गारंटी जैसी मांग को लेकर पिछले एक साल से दिल्ली की सीमाओं पर आंदोलन कर रहे हैं।

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अगस्त के आखिरी सप्ताह में बेंगलुरु में ‘एमएसपी इन फ्यूचर’ विषय पर कृषि विशेषज्ञों, नीति निर्धारकों, किसान प्रतिनिधियों और जिंस बाजार के जानकारों के साथ विमर्श किया गया। इस दौरान सभी ने एमएसपी के मौजूदा स्वरूप को नकारते हुए कई तरह के विकल्प सुझाए। इसमें सबने माना कि किसानों की आíथक मदद होनी चाहिए, वह पीएम-किसान योजना से नगदी की मदद हो अथवा अन्य कोई। धान एवं गेहूं की जगह फसल विविधीकरण पर अगर जोर दिया जाए तो उन वैकल्पिक फसलों की उचित कीमत पर खरीद सुनिश्चित की जाए। किसानों को परंपरागत फसलों से हटाने और दूसरी फसलों की खेती का विकल्प तभी सफल होंगे जब उन्हें फायदा दिखेगा। कृषि उपज से बायोफ्यूल तैयार करने की सरकार की ताजा मुहिम तभी रंग लाएगी जब किसानों को उससे संबद्ध उद्योगों पर विश्वास जमेगा। 

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