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उत्तराखंड पंचायत चुनाव 2025: ग्रामीण भारत में लोकतंत्र की जड़ें और चुनौतियाँ

प्रस्तावना: लोकतंत्र की जड़ें और पंचायत व्यवस्था का उद्भव

भारत में लोकतंत्र कोई नया विचार नहीं है — यह हमारी प्राचीन परंपरा का अभिन्न हिस्सा है। वैशाली गणराज्य को दुनिया के पहले गणराज्य के रूप में माना जाता है, और वहीं से लोकतंत्र की अवधारणा का आरंभ भी देखा जा सकता है। इसी प्रकार, भारतीय ग्राम्य जीवन में ‘पंचायत’ की भूमिका भी वैदिक काल से चली आ रही है। ‘पंचायत’ शब्द ‘पंच’ अर्थात् पांच लोगों की समिति से आया है, जो गांव के विवादों को सुलझाने और निर्णय लेने का कार्य करती थी।

ब्रिटिश शासनकाल में पंचायतों को औपनिवेशिक व्यवस्था का हिस्सा बना लिया गया, जहां उनका उपयोग भूमि राजस्व वसूली और अधिग्रहण के लिए किया जाने लगा। खासकर उत्तराखंड जैसे राज्यों में जहां जंगल और गांव एक-दूसरे से जुड़े थे, वहां वन कानूनों के चलते पंचायतों की ज़मीन और अधिकार सीमित कर दिए गए। यही कारण रहा कि उत्तराखंड में कई जन आंदोलन — जैसे चिपको — ने औपनिवेशिक नीतियों का विरोध किया।

भारत की स्वतंत्रता के बाद, संविधान में नीति निदेशक तत्वों के तहत पंचायतों को स्थापित करने की बात कही गई। इसमें यह कहा गया कि “राज्य ग्राम पंचायतों का गठन करेगा और उन्हें स्वशासन की इकाई के रूप में कार्य करने के लिए आवश्यक अधिकार और शक्तियाँ प्रदान करेगा।”

1957 में बलवंत राय मेहता समिति ने त्रिस्तरीय पंचायत राज व्यवस्था की सिफारिश की:

  • ग्राम पंचायत (गांव स्तर पर)
  • पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर पर)
  • जिला परिषद (जिला स्तर पर)

ग्राम प्रधानों का चुनाव जनता सीधे करती है, लेकिन ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्षों का चुनाव निर्वाचित प्रतिनिधि करते हैं। यह अप्रत्यक्ष प्रणाली कई बार भ्रष्टाचार और राजनीतिक हस्तक्षेप का रास्ता बन जाती है, जिससे प्रत्यक्ष चुनाव की मांग तेज़ होती जा रही है।

1992 में हुए 73वें और 74वें संशोधनों ने पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देते हुए उन्हें व्यापक अधिकार प्रदान किए। इसमें महिलाओं, अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण भी सुनिश्चित किया गया — यह कदम भारत में सामाजिक न्याय और समावेशी लोकतंत्र की दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ।

उत्तराखंड में 2025 के पंचायत चुनाव जमीनी लोकतंत्र की सशक्त मिसाल बनकर सामने आए हैं। हालाँकि पुलिस और आबकारी विभाग ने चुनाव से पहले शराब और नकदी की जब्ती की है — जो मतदाताओं को प्रभावित करने के प्रयासों की ओर इशारा करती है — फिर भी उत्तराखंड जैसे शिक्षित राज्य में मतदाता जागरूक नजर आए।

क्षेत्रीय संवादों से स्पष्ट है कि भले ही शराब बांटी जा रही हो, लेकिन मतदाता इसका असर अपने निर्णय पर नहीं पड़ने दे रहे हैं।

हालाँकि पंचायत चुनाव गैर-पार्टी आधार पर होते हैं और उम्मीदवारों को राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह नहीं दिए जाते, फिर भी पार्टियों ने अपने समर्थित उम्मीदवार घोषित किए हैं। प्रचार सामग्री, बैनर और नारों में साफ झलकता है कि चुनावी मैदान में राजनीतिक दलों की सक्रिय भागीदारी है।

चुनाव से पहले कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अनैतिक गतिविधियों — जैसे शराब वितरण, पैसे का खेल — की ओर ध्यान दिलाया था। फिर भी 24 जुलाई को पहले चरण का मतदान शांतिपूर्वक संपन्न हुआ।

हालाँकि एक चिंताजनक प्रवृत्ति यह है कि अधिकांश उम्मीदवार व्यावसायिक पृष्ठभूमि से हैं — जैसे ठेकेदार, व्यापारी — जिससे यह आशंका बनी हुई है कि लोकतांत्रिक नेतृत्व का विकास बाधित हो सकता है। वर्षों से पार्टी के लिए निष्ठा से काम कर रहे कई जमीनी कार्यकर्ता टिकट न मिलने से नाराज़ भी हैं।

27 जुलाई को होने वाले दूसरे चरण के चुनाव से पहले ही यह स्पष्ट हो गया है कि तमाम चुनौतियों के बावजूद लोकतंत्र की जड़ें गहरी हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचार, चर्चाएं, जनसंपर्क और मतदाता की सक्रियता यह बताती है कि ग्राम स्तर पर लोकतंत्र न केवल मौजूद है, बल्कि सशक्त और जीवंत है।

उत्तराखंड में 2025 के पंचायत चुनाव यह सिद्ध करते हैं कि भारत का लोकतंत्र केवल संसद और विधानसभा तक सीमित नहीं है। गांव-गांव, हर घर और हर मतदाता में लोकतंत्र की आत्मा जीवित है। भले ही चुनावों में पैसे और बाहुबल की कोशिश हो, पर जनता की समझ और संकल्प लोकतंत्र को लगातार आगे ले जा रहे हैं।

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