बजट जारी होने के बाद भी अभी तक अधूरी पड़ी है गंगा वाटिका का काम …
जंगल में मोर नाचा किसने देखा। ये कहावत तो आपने सुनी होगी, लेकिन यहां तो वन विभाग शहर के नजदीक मोर नचा रहा और मानकर चल रहा कि उसे किसी ने नहीं देखा। चौंकिये नहीं, हम कोई पहेली नहीं बुझा रहे, यह हकीकत है। केंद्र सरकार के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम नमामि गंगे के तहत गढ़वाल के प्रवेश द्वार कोटद्वार में खोह नदी के किनारे गंगा वाटिका मंजूर की गई थी। इसके लिए करीब 40 लाख रुपये का बजट स्वीकृत हुआ और फिर जोर-शोर कार्य भी शुरू किया गया। उम्मीद जगी कि लोग जल्द ही वाटिका की सैर कर सकेंगे, मगर यह अब तक अधूरी पड़ी है। वाटिका में एक्यूप्रेशर पार्क की जगह टाइल्स जरूर बिछी, मगर बाकी कार्यों का ईश्वर ही मालिक है। ये बात अलग है कि कार्य का संपूर्ण भुगतान हो चुका है। ये तो एक उदाहरण मात्र है। बाड़ के खेत चरने के ऐसे उदाहरणों की भरमार है।
ऐसे में अंगुलियां तो उठेंगी ही
कार्बेट टाइगर रिजर्व में बन रही टाइगर सफारी के लिए स्वीकृति से अधिक पेड़ों का कटान और पाखरो से कालागढ़ वन विश्राम तक अवैध निर्माण का मामला इन दिनों सुर्खियों में है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण अपनी स्थलीय जांच रिपोर्ट में शिकायतों को सही ठहराने के साथ ही दोषियों पर कार्रवाई की सिफारिश कर चुका है। जिस कार्बेट टाइगर रिजर्व से बिना अनुमति के एक पत्थर तक नहीं उठाया जा सकता, वहां इस तरह के प्रकरण सामने आएंगे तो अंगुलियां उठेंगी ही। बड़ा सवाल ये कि अगर जंगल के रखवाले ही नियमों को दरकिनार कर देंगे तो क्या होगा। जिस तरह टाइगर सफारी को विभिन्न स्तरों से स्वीकृति ली गई, उसी तरह के कदम दूसरे कार्यों के लिए क्यों नहीं उठाए गए। जो निर्माण कार्य ध्वस्त किए गए हैं, यदि उनके लिए नियमानुसार स्वीकृति ली गई होती तो न इन्हें ध्वस्त करना पड़ता और न विभागीय कार्यशैली पर प्रश्नचिह्न लगते।
आखिर कब रफ्तार पकड़ेगा ईको टूरिज्म
नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण और 71.05 प्रतिशत वन भूभाग वाले उत्तराखंड में ईको टूरिज्म की अपार संभावनाएं हैं। सरकार भी ईको टूरिज्म को बढ़ावा देने की बात कर रही है, मगर विभागीय सुस्त चाल से यह गति नहीं पकड़ पा रहा। वह भी तब जबकि ईको टूरिज्म की दृष्टि से स्थलों के विकास, वन चेतना केंद्रों व वन विश्राम भवनों के रखरखाव जैसे कार्यों पर वन विभाग हर साल बड़ी धनराशि खर्च करता है। अब तो विभाग के अंतर्गत पारिस्थितिकीय पर्यटन विकास निगम अस्तित्व में है। बावजूद इसके ईको टूरिज्म का गति न पकड़ पाना अपने आप में आश्चर्यजनक है। स्थानीय निवासियों को रोजगार उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ईको टूरिज्म को बढ़ावा देने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति का अभाव कहीं न कहीं इस राह में बाधक बन रहा है। खैर, अब भी वक्त है, विभाग को इस दिशा में प्रभावी कदम उठाने चाहिए।
फसलों पर जंगली जानवरों का पहरा
उत्तराखंड में जहां बाघ, गुलदार, हाथी व भालू जैसे जानवर जान के खतरे का सबब बने हुए हैं, वहीं जंगली जानवर किसानों की मेहनत पर पानी फेर रहे हैं। विशेषकर, बंदर, लंगूर, वनरोज, सूअर जैसे जानवर खेतों में खड़ी फसलें चौपट कर दे रहे हैं। इस मामले में पहाड़ से लेकर मैदान तक सभी जगह स्थिति करीब-करीब एक जैसी ही है। फिर भी समस्या के समाधान की दिशा में ठोस पहल नहीं हो पा रही। ऐसा नहीं कि वन्यजीवों से फसल सुरक्षा को योजनाएं न बनी हों। एक नहीं अनेक योजनाएं हैं, लेकिन ये धरातल पर आकार नहीं ले पा रहीं। हालांकि, वन विभाग की ओर से क्षतिपूर्ति जरूर दी जाती है, लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। परिणामस्वरूप किसानों के माथों पर बल पड़ना स्वभाविक है। पर्वतीय क्षेत्र के गांवों में ग्रामीणों के खेती से विमुख होने और पलायन के पीछे एक बड़ी वजह वन्यजीवों का खौफ भी है।
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