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जानिए गंगा, यमुना व अदृश्य सरस्वती की संगम स्थली प्रयागराज में स्नान करने का महत्व

वास्तव में भारतीय देव व्यवस्था में साक्षात प्रकृति की शक्तियों की उपासना का प्रविधान है। सूर्य, अग्नि, नदी आदि वैदिक देवों में ‘नदीतमा’ सरस्वती का प्रसंग ऋग्वेद में अनेक बार आता है। नासा के सेटेलाइट चित्रों और इसरो की खोज के बाद सरस्वती को कल्पना बताने वाले महानुभावों को उनके प्रश्नों के उत्तर मिल गए होंगे। ऋग्वेद सूक्त (3/23) के चतुर्थ मंत्र में आपया, दृषद्वती तथा सरस्वती के तटों पर रहने वाली सभ्यता की समृद्धि के वर्णन मिलते हैं। वैदिक ऋषियों की स्तुत्य सरस्वती नदी हिमालय के हिमनदों से निकलकर दक्षिणी समुद्र में विलीन हो जाती थी। ऋग्वेद में वर्णन मिलता है कि सुदास नामक राजा का राज्य सरस्वती नदी के तट पर स्थित था। सरस्वती के तट पर निवास करने वाले आर्यजन समृद्धशाली थे। यहीं से विराट ज्ञान उपजा और सरस्वती विद्या और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी के रूप में भी पूजी गईं।

और विलुप्त हो गईं सरस्वती

ऋग्वेद तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में दिए गए संदर्भो के क्रम में अनेक भू-विज्ञानियों का मत है कि हरियाणा और राजस्थान के मध्य बहने वाली वर्तमान में सूखी हुई घग्गर-हकरा नदी सरस्वती की एक सहायक धारा थी, जो लगभग 5,000 ईसा पूर्व शक्तिशाली जलधारा के साथ बहती थी। उस समय सतलुज और यमुना नदी की भी कुछ धाराएं सरस्वती नदी में आकर मिलती थीं। भूगर्भीय परिवर्तनों के कारण लगभग 2,000 ईसा पूर्व सतलुज तथा यमुना ने अपना मार्ग बदल लिया। दृषद्वती नदी भी लगभग 2,500 साल पूर्व सूख गई तथा कालांतर में सरस्वती नदी विलुप्त हो गई।

सर्वाधिक स्तुत्य नदी

ऋग्वेद की विभिन्न ऋचाओं में 25 नदियों का उल्लेख मिलता है। इनमें सरस्वती नदी का स्थान विशेष है। वह नदी ही नहीं, बल्कि वाग्देवी अर्थात वाणी तथा ज्ञान की भी देवी हैं। ऋग्वेद के भरतजनों की सर्वाधिक प्रिय नदी सरस्वती है- भरतजनों के कारण ही इस देश का नाम भारत पड़ा। ऋग्वेद के भारत में मूल निवास के लिए ‘सप्तसिंधव’ (8.24.27) – सात नदियों वाले क्षेत्र का उल्लेख भी मिलता है। इसमें सात नदियों का उद्धृत है, किंतु सरस्वती और सिंधु की स्तुति सर्वाधिक है। ऋग्वेद में सरस्वती को संपूर्ण पृथ्वी को तेज से भरने वाला भी बताया गया है। सरस्वती गुणवती, ज्ञानवान और नदीतमा है। यहां सभी नदियों का जल पवित्र होता है, किंतु सरस्वती बुद्धि को भी पवित्र करती है। (1.3.4)

जलाशय बताता है इतिहास

महाभारत के अनुसार, सरस्वती नदी का उद्गम स्थल हरियाणा में यमुनानगर से थोड़ा ऊपर और शिवालिक की श्रंखलाओं से तनिक नीचे आदि बद्री नामक स्थान पर है। स्थानीय निवासी आज भी इस जगह को तीर्थस्थल के रूप में मान्यता देते हैं। वैदिक और महाभारत कालीन वर्णन के अनुसार सरस्वती नदी के तट पर ही ब्रrावर्त, कुरुक्षेत्र था। वर्तमान में वहां जलाशय है। ऐसा माना जाता है कि किसी नदी के सूखने की प्रक्रिया में जहां पर पानी की गहराई अधिक होती है वहां तालाब या झील बन जाती है। आज भी कुरुक्षेत्र में ब्रrासरोवर या पेहवा में अर्धचंद्राकार सरोवर मिलते हैं। यद्यपि इनमें से कुछ सूख भी गए हैं, परंतु ये जलाशय इस बात का प्रमाण हैं कि कभी यहां से होकर कोई हहराती हुई वेगवती नदी बहा करती थी।

तट पर हुआ संस्कृति का विकास

इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे पूर्वज आर्यजन सरस्वती के प्रति कृतज्ञ रहे हैं। वे इसे धनदात्री, अन्नदात्री एवं रक्षक के रूप में पूजते रहे हैं। चूंकि सरस्वती एक विशाल भू-भाग की जल की आवश्यकता को पूर्ण करती हैं, कृषि को समृद्ध बनाती हैं। इसलिए धनदात्री हैं। इसी तट पर ऋषिजन शोध करते हैं, ज्ञानदर्शन की मीमांसा करते हैं। इसलिए वाग्देवी हैं, ज्ञान की अधिष्ठात्री हैं। ऋग्वैदिक काल से सरस्वती के तटों पर अत्यंत उन्नत संस्कृति का विकास हुआ। यहां के निवासियों का जीवन श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों पर आधारित था। यहां यह भी जानना आवश्यक है कि सरस्वती ऋग्वेद में ही नहीं, बल्कि यजुर्वेद में भी जल से परिपूर्ण हैं। ‘पंचनद्य: सरस्वती मपियंति सस्रोतस:- जल प्रवाह करते हुए पांच नदियां सरस्वती में आकर विलीन हो जाती हैं।’

भयावह है वर्तमान परिदृश्य

हड़प्पा-मोहनजोदड़ो सभ्यता वैदिक काल के बाद की है। हड़प्पा सभ्यता की शैशव अवस्था में भी सरस्वती जल से भरी हुई थी। ऋग्वेद का विशाल भूखंड हड़प्पा सभ्यता का क्षेत्र भी है। हड़प्पा सभ्यता के विकास में सरस्वती के जल का विशेष योगदान है। कालांतर में भूगर्भीय परिवर्तन हुए, सरस्वती जलविहीन हो सूख गईं और हड़प्पा सभ्यता के हृास का कारण सरस्वती का जलविहीन होना भी माना जा सकता है। वर्तमान परिदृश्य भी भयावह है। कभी हृष्ट-पुष्ट जलधारा से परिपूरित रहने वाली वेगवती नदियां आज दम तोड़ रही हैं। मानवजीवन और सभ्यता खतरे में दिख रही है। हम भारतवासी नदियों को मां मानते आए हैं। जहां नदी देखी, वहीं हाथ जोड़ प्रणाम किया। ऋग्वेद के ऋषियों से लेकर वाल्मीकि, कालिदास और तुलसीदास तक नदी के अपनत्व से सराबोर रहे। हम उन्हीं के वंशज हैं और गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती में डुबकी लगाकर तन और मन को तृप्त करते आए हैं।

आने को है अमृत युग

सरस्वती नदी की खोज का कार्य लगभग पूर्ण हो चुका है। विगत तीन दशकों से चल रहे शोध और प्राप्त प्रमाणों से स्पष्ट हो चुका है कि सरस्वती मिथक मात्र नहीं अपितु सनातन परंपरा की ऐतिहासिक नदी है। वह नदी आज भले ही हमारे सामने भौतिक रूप से विद्यमान न हो, किंतु ‘नीर-क्षीर विवेक प्रदान करने वाली हंसवाहिनी के रूप में हमारे हृदय में वास करती हैं।’

सरस्वती का प्रवाह हमारे अंत:कलुष को निर्मल बनाता रहे और हम स्वाधीनता, स्वावलंबन और स्वाभिमान के इस अमृत युग में जल माताओं के पोषण के प्रति सजग रहते हुए महाप्राण निराला की यही पंक्तियां गुनगुनाते रहें:

काट अंध-उर के बंधन-स्तर,

बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर,

कलुष भेद-तम हर प्रकाश भर,

जगमग जग कर दे,

वीणावादिनी वर दे।

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