जानिए आखिर क्यों कर्ण को परशुराम ने दिया था श्राप, देखें ये पौराणिक कथा
आज तक आप सभी ने महाभारत से जुडी कई घटनाओं के बारे में सुना होगा लेकिन आज हम आपको एक चौकाने वाली घटना के बारे में बताने जा रहे हैं। इस घटना में कर्ण को परशुराम द्वारा श्राप मिला था। हालाँकि क्यों यह जानना बहुत रोचक है। आइए हम आपको बताते हैं।
पौराणिक कथा- महाभारत काल में, युद्धकला में केवल मल्ल-युद्ध ही नहीं होता था, बल्कि सभी तरह के शस्त्रों को चलाना भी सिखाया जाता था। जी हाँ और इसमें ख़ास रूप से तीरंदाजी पर जोर दिया जाता था। हालाँकि कर्ण जानता था कि परशुराम सिर्फ ब्राह्मणों को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करेंगे। ऐसे में सीखने की चाहत में उसने एक नकली जनेऊ धारण किया और एक ब्राह्मण के रूप में परशुराम के पास चला गया। वहीं उसके बाद परशुराम ने उसे अपना शिष्य बना लिया, और वो सब कुछ सिखा दिया जो वे जानते थे। ऐसे में कर्ण बहुत जल्दी सीख गया और किसी भी अन्य शिष्य में उस तरह का स्वाभाविक गुण और क्षमता नहीं थी।
परशुराम उससे बहुत खुश हुए। ऐसे में उन दिनों, परशुराम काफी बूढ़े हो चुके थे। एक दिन जंगल में अभ्यास करते समय, परशुराम बहुत थक गए। उस दौरान उन्होंने कर्ण से कहा वे लेटना चाहते हैं। कर्ण बैठ गया ताकि परशुराम कर्ण की गोद में अपना सिर रख पाएं। उसके बाद परशुराम सो गये। तभी एक खून चूसने वाला कीड़ा कर्ण की जांघ में घुस गया और उसका खून पीने लगा। इस दौरान उसे भयंकर कष्ट हो रहा था, और उसके जांघ से रक्त की धार बहने लगी। हालाँकि वह अपने गुरु की नींद को तोड़े बिना उस कीड़े को हटा नहीं सकता था, लेकिन अपने गुरु की नींद को तोड़ना नहीं चाहता था। कुछ ही समय बाद धीरे-धीरे रक्त की धार परशुराम के शरीर तक पहुंची और इससे उनकी नींद खुल गई। ऐसे में परशुराम ने आंखें खोल कर देखा कि आस पास बहुत खून था।
यह देखकर भगवान परशुराम गुस्से में कहते हैं, “इतनी सहनशीलता सिर्फ किसी क्षत्रिय में ही हो सकती है। तुमने मुझसे झूठ बोलकर ज्ञान हासिल किया है, इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि जब भी तुम्हें मेरी दी हुई विद्या की सबसे ज्यादा जरूरत होगी, उस समय वह काम नहीं आएगी।” वहीं इससे निराश होकर कर्ण अपने गुरु से कहता है कि वह स्वयं नहीं जानता कि वह किस वंश और कुल का है। ऐसे में वह सारी बातें अपने गुरु परशुराम को बताते हैं। यह जानने के बाद भगवान परशुराम को श्राप देने पर पछतावा होता है, लेकिन दिया हुआ श्राप वापस नहीं लिया जा सकता था। इसलिए, वह अपना विजय धनुष कर्ण को वरदान के रूप में देते हैं। इसके बाद कर्ण भगवान परशुराम के आश्रम से विदा लेते हैं।
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