कर्नाटक में हिजाब पहनने को लेकर बवाल मचा, जानें इस मसले पर क्या है एक्सपर्ट की राय
कर्नाटक में कालेज में हिजाब पहनने को लेकर बवाल मचा है और मामला फिलहाल हाई कोर्ट में विचाराधीन है। अगर कोर्ट के पूर्व फैसलों और विधि विशेषज्ञों की राय देखें तो धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत हिजाब पहनने की दलील कानूनी रूप से ज्यादा टिकती नजर नहीं आती। धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार में उन्हीं चीजों और रीति-रिवाजों को मान्यता दी जा सकती है जो धर्म का अभिन्न हिस्सा हों। विधि विशेषज्ञों की मानें तो पहनावा धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं होता। कालेज या स्कूल अथवा किसी संस्था में लागू ड्रेस कोड को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के खिलाफ नहीं माना जा सकता।
पहले भी आ चुके हैं ऐसे मामले
यह पहला मौका नहीं है जब धार्मिक मान्यता की दुहाई देकर इस तरह की मांग की जा रही है। पहले भी इससे मिलते जुलते मामले हुए हैं जिनमें कोर्ट ने फैसले भी सुनाए हैं। 15 दिसंबर, 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने धार्मिक मान्यता की दुहाई देकर वायुसेना में नौकरी करने वाले मोहम्मद जुबैर की दाढ़ी रखने और दाढ़ी रखने के कारण उसे नौकरी से निकाले जाने का आदेश रद करने की मांग खारिज कर दी थी।
इस्लाम में दाढ़ी रखने की अनिवार्यता नहीं
उस फैसले में कोर्ट ने कहा था, ‘वेशभूषा से जुड़े नियम और नीतियों की मंशा धार्मिक विश्वासों के साथ भेदभाव करने की नहीं है और न ही इनका ऐसा प्रभाव होता है। इसका लक्ष्य और उद्देश्य एकरूपता, सामंजस्य, अनुशासन और व्यवस्था सुनिश्चित करना है जो वायुसेना के लिए अनिवार्य है। वास्तव में यह संघ के प्रत्येक सशस्त्र बल के लिए है।’ सुप्रीम कोर्ट ने उसमें इस्लाम में दाढ़ी रखने की अनिवार्यता नहीं मानी थी और वायुसेना के दाढ़ी रखने की मनाही के नियम को सही ठहराया था। फैसला भले ही वायुसेना के मामले में दिया गया था, लेकिन इसके मायने व्यापक हैं।
संस्था में स्वेच्छा से जा रहे हैं तो मानना पड़ेगा ड्रेस कोड
स्कूल, कालेज, किसी संस्था या सशस्त्र बल में लागू ड्रेस कोड के पालन को जरूरी बताते हुए सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश शिवकीर्ति ¨सह भी कहते हैं कि स्कूल, आफिस, कालेज या सेना जहां संस्था को ड्रेस तय करने का अधिकार है, वहां उनकी ड्रेस को महत्व देना पड़ेगा अन्यथा आपके पास विकल्प है कि आप वहां न जाएं। इसका मूल कारण यह है कि ड्रेस की आजादी मजहब या धर्म की आजादी से नहीं जुड़ी है।
संस्कार धर्म का अभिन्न हिस्सा
कोर्ट ने फैसलों में किसी को धार्मिक मान्यताओं के पालन की छूट का मतलब बड़ा सोच-समझकर दिया है। उसमें जो रीति-रिवाज या संस्कार धर्म का अभिन्न हिस्सा हैं, उनके पालन का अधिकार है, जैसे नमाज पढ़ने का। धार्मिक आजादी का सुप्रीम कोर्ट ने अभी एक बड़ा रिस्ट्रेक्टिव मी¨नग दिया है कि बुनियादी संस्कारों और मान्यताओं को बदलने के लिए दबाव नहीं डाला जाएगा। आप अपने घर में, पूजा या प्रार्थना स्थल में उसका पालन कर सकते हैं। लेकिन ड्रेस जिस संस्था में लागू है और आप वहां स्वेच्छा से जा रहे हैं तो आपको उसका पालन करना पड़ेगा। यह कहना कि ड्रेस धार्मिक स्वतंत्रता को प्रभावित कर रहा है, ठीक नहीं है।
ड्रेस अव्यवहारिक हो तो दी जा सकती है चुनौती
जस्टिस ¨सह कहते हैं कि तय ड्रेस को अव्यवहारिक होने के आधार कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है या किसी को ड्रेस तय करने का अधिकार न हो और वह ड्रेस तय करे तो गलत होगा। लेकिन अगर किसी निश्चित उद्देश्य से किसी संस्था में ड्रेस तय है तो उसका सम्मान करना होगा। उसे धर्म के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती। धर्म आस्था पर जाता है न कि प्रदर्शन पर। मेरे विचार से पहनावा धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं है।
ड्रेस को धर्म से नहीं जोड़ना चाहिए
धर्म नहीं कहता कि आप बिना हिजाब के कहीं नहीं जा सकते। ड्रेस को धर्म से नहीं जोड़ना चाहिए। अगर जोड़ा जाता है तो गलत है। संविधान में मिले ज्यादातर मौलिक अधिकार शर्तो के आधीन हैं। ऐसे ही धार्मिक स्वतंत्रता का भी अधिकार है। सरकार कानून बनाकर उसे नियंत्रित कर सकती है, लेकिन जस्टिस ¨सह का मानना है कि इस मामले में ऐसी स्थिति नहीं है क्योंकि ये धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं है।
बिजोय एम्मानुएल बनाम केरल मामले का जिक्र
सुप्रीम कोर्ट ने 11 अगस्त, 1986 को बिजोय एम्मानुएल बनाम केरल राज्य मामले में दिए फैसले में भी धार्मिक आजादी और अभिव्यक्ति की आजादी पर चर्चा की है। उस फैसले में कोर्ट ने स्कूल में राष्ट्रगान नहीं गाने वाले तीन बच्चों को स्कूल से निकाले जाने को गलत ठहराया था। बच्चों की ओर से धर्मिक विश्वास के खिलाफ होने की बात कहते हुए राष्ट्रगान नहीं गाने की दलील दी गई थी। कोर्ट ने कहा था कि बच्चों ने राष्ट्रगान का अपमान नहीं किया। वे राष्ट्रगान के दौरान सम्मान में खड़े हुए, सिर्फ उसे गाया नहीं।
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