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_*मौत पर भारी रोजी-रोटी*_

_*मौत पर भारी रोजी-रोटी*_

 बरेली ! संध्या ठाकुर……..
 कोरोना का कहर चरम पर है | बरेली शहर की ही बात करें तो एक जुलाई को एक ही दिन में 48 लोगों में संक्रमण की पुष्टि हुई | मौत की संख्या में भी निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है|
              संक्रमित लोगों के आंकड़े दिलों में दहशत तो पैदा कर रहे हैं परंतु फिर भी हम लोग अनलॉक की ओर बढ़ते भी जा रहे हैं । मास्क लगाना , रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाली दवाइयों का सेवन करना , सैनिटाइजर का प्रयोग , हाथ धोना जैसी सावधानियां बरतने के बावजूद कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ती ही जा रही है । इसकी वजह हमारी कुछ लापहरवाहियाँ भी हो सकती हैं । परंतु प्रश्न तो यह है कि हम लोग अपने घरों में क्यों नहीं रुक पा रहे – यह जानते हुए भी कि बाहर मौत है । क्या हमारा घरों से बाहर निकलना हमारे जीवित रहने से ज्यादा जरूरी है ?
                आज व्यापारियों के एक गुट ने यह प्रस्ताव रखा है कि सोमवार से 15 दिन के लिए स्वयं ही पूरी तरह से बाजार बंद कर दिया जाए ; इसके लिए प्रशासन के निर्देशों की प्रतीक्षा ना की जाए   । परंतु कुछ व्यापारी संगठन इसके विरोध में खड़े हो गए हैं । सहमति से कोई भी फैसला नहीं हो सका , परन्तु शुक्रवार को इस बाबत निर्णय लेने के लिए बैठक बुलाई गई है।
                   फैसला जो भी हो परंतु इस आत्मद्वंद से यह तो स्पष्ट होता ही है कि लोग कोरोना के खतरे को भली -भाँति समझ रहे हैं ।  वह जानते हैं कि इस संकट की घड़ी में सबसे सुरक्षित स्थान अपना घर ही है ।
                 परन्तु दूसरी ओर यह भी सत्य है कि यदि सब पुनः घर में लॉक हो जाएँ  , बाजार बंद हो जाएं , तो आजीविका कैसे चलेगी । दुकानों , संस्थानों के मालिकों के सामने संभवतः आजीविका का प्रश्न न भी आए परंतु उनके मातहत काम करने वाले लोगों के वेतन का प्रश्न अवश्य आ खड़ा होगा । जब आय नहीं होगी तो व्यय कहां से होगा – ऐसे में रिक्शे, तांगे , ऑटो वाले , छोटी दुकानें   लगाने वालों की आय के स्रोत बंद हो जाएंगे । आखिर कितने दिन लोग बिना आय के घरों में बंद जी सकते हैं ? रोटी तो सबको चाहिए । एक रिक्शेवाले से प्रश्न पूछा कि आप तो हर प्रकार के व्यक्ति को अपनी रिक्शा में सवारी करवाते हैं , आपको संक्रमण का भय नहीं लगता ? तो उसने दो टूक जवाब दिया , “भूख से मरे या कोरोना से क्या फर्क पड़ता है साहब जी “
  बाजार में एक व्यापारी से प्रश्न किया कि आप स्वयं दुकान बढ़ा कर घर में क्यों नहीं रहते तो उन्होंने कहा,” यदि पड़ोसी दुकानदार दुकान खोल रहा है तो मैं कैसे बंद कर दूं । मेरी ग्राहकी उसके पास चली जाएगी ।”
                 जिंदगी हजार नेमत है, लेकिन जिंदा रहने की मजबूरी ही हमें मौत की ओर खींच रही है । लोग कशमकश में है और यंत्रवत वही करते जा रहे हैं जो बाकी लोगों को करते हुए देख रहे हैं । रोजी-रोटी की जुगाड़ इंसान की मौत के डर पर भारी पड़ रही है । डॉ विनय खण्डेलवाल शिक्षक एम एल सी प्रत्याशी बरेली मुरादाबाद मंडल I

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